Monday, August 8, 2011

Jain & Sikh Dharam(Hindi)


जैन धर्म

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन का अभिमत है कि जैन धर्म की भगवान महावीर के पूर्व जो परम्परा प्राप्त है, उसके वाचक निगंठ धम्म (निर्ग्रन्थ धर्म), आर्हत्धर्म एवं श्रमण परम्परा रहे हैं। पार्र्श्वनाथ के समय तक 'चातुर्याम धर्म' था। भगवान महावीर ने छेदोपस्थानीय चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ) की व्यवस्था की। 'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन' जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्का धर्म।
जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है- णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥ अर्थात अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।
सम्प्रदाय
दिगम्बर
दिगम्बर मुनि (श्रमण)वस्त्र नहीं पहनते है। नग्न रहते हैं दिगम्बर पंथ मैं पाच भागो मैं विभक्त है।
·      मुर्तिपुजक- *चतुर्थ*पंचम*कासार*भोगार*शेतवाळ
·      मंदीरमार्गी-
·      तेरापन्थी
श्वेताम्बर
श्वेताम्बर सन्यासी सफ़ेद वस्त्र पहनते हैं और श्वेताम्बर भी तीन भाग मे विभक्त है।
·      मूर्तिपूजक
·      स्थानकवासी
धर्मग्रंथ
समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है प्रथमानुयोग् करनानुयोग चरर्नानुयोग द्रव्यानुयोग
अन्य ग्रन्थ
षट्खण्डागम, धवला टीका, महाधवला टीका, कसायपाहुड, जयधवला टीका, समयसार, योगसार प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसार, बारसाणुवेक्खा, आप्तमीमांसा, अष्टशती टीका, अष्टसहस्री टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, भगवती आराधना, मूलाचार, गोम्मटसार, द्रव्यसंग्रह, अकलंकग्रन्थत्रयी, लघीयस्त्रयी, न्यायकुमुदचन्द्र टीका, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चयविवरण, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भद्रबाहु संहिता
दर्शन
अनेकान्तवाद
स्याद्वाद
प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने ग्रंथ " भगवान महावीर एवं जैन दर्शन " में अनेकांतवाद एवं स्याद्वाद की सम्यग्अवधारणा को स्पष्ट किया है। लेखक ने सिद्ध किया है कि अनेकांत एकांगी एवं आग्रह के विपरीत समग्रबोध एवं अनाग्रह का द्योतक है। इसी प्रकार लेखक ने स्पष्ट किया है कि 'स्याद्वाद' का 'स्यात्‌' निपात शायद, सम्भावना, संशय अथवा कदाचित्आदि अर्थों का वाचक नहीं है। स्याद्वाद का अर्थ है- अपेक्षा से कथन करने की विधि या पद्धति।अनेक गुण-धर्म वाली वस्तु के प्रत्येक गुण-धर्म को अपेक्षा से कथन करने की पद्धति। विभिन्न शास्त्रों एवं ग्रन्थों का पारायण करते समय जिन बिन्दुओं पर व्यतिरेक/विरोधाभास प्रतीत होता है, उन्हें भी इस ग्रंथ में स्पष्ट किया गया है।

जीव और पुद्गगल
जैन आत्मा को मानते हैं वो उसे "जीव" कहते हैं अजीव को पुद्गगल कहा जाता है जीव दुख-सुख, दर्द, आदि का अनुभव करता है और पुनर्जन्म लेता है
मोक्ष
जीवन मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं।
चारित्र
छह द्रव्य
जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल।
नव तत्त्व
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष,
नौ पदार्थ
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष।
चार कषाय
क्रोध, मान, माया, लोभ।
चार गति
देव गति, मनुष्य गति, तिर्यञ्च गति, नर्क गति, (पञ्चम गति = मोक्ष)
चार निक्षेप
नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, भाव निक्षेप।
ईश्वर
जैन ईश्वर को मानते हैं। किन ईश्वर को सत्ता सम्पन्न नही मानते ईश्वर सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही |
पाँच महाव्रत
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह
सम्यक्त्व के आठ अंग
निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन / उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य.
त्यौहार
जैन धर्म के प्रमुख त्यौहार इस प्रकार हैं
·      ओली
·      पज्जुशण
·      पर्जुषण
अहिंसा पर ज़ोर एवं युगीन प्रासंगिकता
अहिंसा और जीव दया पर बहुत ज़ोर दिया जाता है सभी जैन शाकाहारी होते हैं प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने ग्रंथ " भगवान महावीर एवं जैन दर्शन " में जैन धर्म एवं दर्शन की युगीन प्रासंगिकता को व्याख्यायित करते हुए यह मत व्यक्त किया है कि आज के मनुष्य को वही धर्म-दर्शन प्रेरणा दे सकता है तथा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक समस्याओं के समाधान में प्रेरक हो सकता है जो वैज्ञानिक अवधारणाओं का परिपूरक हो, लोकतंत्र के आधारभूत जीवन मूल्यों का पोषक हो, सर्वधर्म समभाव की स्थापना में सहायक हो, अन्योन्याश्रित विश्व व्यवस्था एवं सार्वभौमिकता की दृष्टि का प्रदाता हो तथा विश्व शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का प्रेरक हो। लेखक ने इन प्रतिमानों के आधार पर जैन धर्म एवं दर्च्चन की मीमांसा की है।

सिख धर्म

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सिख धर्म: सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, पर उसके पास जाने के लिये दस गुरुओं की सहायता को महत्त्वपूर्ण समझते हैं इनका धर्मग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब है अधिकांश सिख पंजाब (भारत) में रहते हैं
सिख गुरु
सिखों के दस गुरु हैं प्रथम गुरु थे गुरु नानक और अन्तिम गुरु थे गुरु गोबिन्द सिंह
ईश्वर
सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे एक-ओंकार कहते हैं उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है
गुरु ग्रंथ साहिब
गुरु ग्रंथ साहिब सिख धर्म का प्रमुख धर्मग्रन्थ है। इसका संपादन सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी ने किया। गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पहला प्रकाश 16 अगस्त 1604 को हरिमंदिर साहिब अमृतसर में हुआ। 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोविंद सिंह जी ने गुरु तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया, इसमे कुल 1430 पृष्ठ है।
गुरुग्रन्थ साहिब में मात्र सिख गुरुओं के ही उपदेश नहीं है, वरन् 30 अन्य हिन्दू और मुस्लिम भक्तों की वाणी भी सम्मिलित है। इसमे जहां जयदेवजी और परमानंदजी जैसे ब्राह्मण भक्तों की वाणी है, वहीं जाति-पांति के आत्महंता भेदभाव से ग्रस्त तत्कालीन समाज में हेय समझे जाने वाली जातियों के प्रतिनिधि दिव्य आत्माओं जैसे कबीर, रविदास, नामदेव, सैण जी, सघना जी, छीवाजी, धन्ना की वाणी भी सम्मिलित है। पांचों वक्त नमाज पढ़ने में विश्वास रखने वाले शेख फरीद के श्लोक भी गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। अपनी भाषायी अभिव्यक्ति, दार्शनिकता, संदेश की दृष्टि से गुरु ग्रन्थ साहिब अद्वितीय है। इसकी भाषा की सरलता, सुबोधता, सटीकता जहां जनमानस को आकर्षित करती है। वहीं संगीत के सुरों 31 रागों के प्रयोग ने आत्मविषयक गूढ़ आध्यात्मिक उपदेशों को भी मधुर सारग्राही बना दिया है।
गुरु ग्रन्थ साहिब में उल्लेखित दार्शनिकता कर्मवाद को मान्यता देती है। गुरुवाणी के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मो के अनुसार ही महत्व पाता है। समाज की मुख्य धारा से कटकर संन्यास में ईश्वर प्राप्ति का साधन ढूंढ रहे साधकों को गुरुग्रन्थ साहिब सबक देता है। हालांकि गुरु ग्रन्थ साहिब में आत्मनिरीक्षण, ध्यान का महत्व स्वीकारा गया है, मगर साधना के नाम पर परित्याग, अकर्मण्यता, निश्चेष्टता का गुरुवाणी विरोध करती है। गुरुवाणी के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व से विमुख होकर जंगलों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर हमारे हृदय में ही है, उसे अपने आन्तरिक हृदय में ही खोजने अनुभव करने की आवश्यकता है। गुरुवाणी ब्रह्मज्ञान से उपजी आत्मिक शक्ति को लोककल्याण के लिए प्रयोग करने की प्रेरणा देती है। मधुर व्यवहार और विनम्र शब्दों के प्रयोग द्वारा हर हृदय को जीतने की सीख दी गई है।
ईसाई धर्म
ईसाई धर्म या मसीही धर्म दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सांप्रदाय है ये ईसा मसीह के उपदेशों पर आधारित है इसका धर्मग्रन्थ बाइबिल है
ईश्वर
ईसाई एक ही ईश्वर को मानते हैं लेकिन वो ईश्वर को त्रीएक के रूप में समझते हैं -- परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा
परमपिता
परमपिता इस दुनिया के रचयिता हैं, और इसके शासक भी
[ईसा मसीह
ईसा मसीह (यीशु) एक यहूदी थे जो इस्राइल के गाँव बेत्लहम में जन्मे थे ( ईसापूर्व) ईसाई मानते हैं की उनकी माता मारिया (मरियम) सदा-कुमारी (वर्जिन) थीं ईसा उनके गर्भ में परमपिता परमेश्वर की कृपा से चमत्कारिक रूप से आये थे ईसा के बारे में यहूदी नबियों ने भविष्यवाणी की थी कि एक मसीहा (अर्थात "राजा" या तारनहार) जन्म लेगा कुछ लोग ये मानते हैं कि ईसा हिन्दुस्तान भी आये थे बाद में ईसा ने इस्राइल में यहूदियों के बीच प्रेम का संदेश सुनाया , और कहा कि वो ही ईश्वर के पुत्र हैं इन बातों पर पुराणपंथी यहूदी धर्मगुरु भड़क उठे और उनके कहने पर इस्राइल के रोमन राज्यपाल ने ईसा को क्रूस पर चढ़ कर मरने का प्राणदण्ड दे दिया ईसाई मानते हैं कि इसके तीन दिन बाद ईसा का पुनरुत्थान हुआ और ईसा मृतकों में से जी उठे ईसा के उपदेश बाइबिल के नये नियम में उनके शिष्यों द्वारा लिखे गये हैं
पवित्र आत्मा
पवित्र आत्मा त्रिएक परमेश्वर के तीसरे व्यक्तित्व हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति अपने अन्दर ईश्वर का अहसास करता है। ये ईसा के चर्च को निर्देशित करते हैं
बाइबिल
ईसाई धर्मग्रन्थ बाइबिल में दो भाग हैं पहला भाग (पुराना नियम) और यहूदियों का धर्मग्रन्थ एक ही हैं दूसरा भाग (नया नियम) ईसा के उपदेश, कारनमे और उनके शिष्यों के काम से रिश्ता रखता है
साम्प्रदाय
ईसाइयों के मुख्य साम्प्रदाय हैं :
रोमन कैथोलिक
रोमन कैथोलिक रोम के पोप को सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं
प्रोटेस्टेंट
प्रोटेस्टेंट किसी पोप को नहीं मानते और इसके बजाय बाइबिल में पूरी श्रद्धा रखते हैं
ऑर्थोडॉक्स
ऑर्थोडॉक्स रोम के पोप को नहीं मानते, पर अपने-अपने राष्ट्रीय धर्मसंघ के पैट्रिआर्क को मानते हैं और परम्परावादी होते हैं

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